जब लद्दाख के जाने-माने पर्यावरण कार्यकर्ता और शिक्षक सोनम वांगचुक ने 2024 में चेतावनी दी थी कि यह इलाका एक “विस्फोटक स्थिति” की ओर बढ़ सकता है, तब बहुतों ने इसे बढ़ा-चढ़ाकर कहा गया बयान मान लिया। लेकिन ठीक एक साल बाद, उनके शब्द आज की हिंसक घटनाओं के बीच और भी ज़्यादा गूंज रहे हैं।
उबलते हालात
लद्दाख सिर्फ पहाड़ों और मठों की खूबसूरती भर नहीं है। यह एक ऐसी धरती है जहाँ के लोग पीढ़ियों से संघर्ष करते आए हैं। लेकिन हाल के वर्षों में यहां की परेशानियां और गहरी हो गई हैं—राजनीतिक प्रतिनिधित्व की कमी, सीमित रोजगार अवसर और शासन से दूरी की भावना।
24 सितंबर को लेह की सड़कों पर विरोध प्रदर्शन अचानक हिंसा में बदल गया। जिन गलियों में आमतौर पर पर्यटकों की चहल-पहल और भिक्षुओं की प्रार्थनाएँ गूंजती हैं, वहीं आग, अफरा-तफरी और त्रासदी देखने को मिली। चार लोगों की जान गई, दर्जनों घायल हुए और शहर में कर्फ्यू लगाना पड़ा। स्थानीय लोगों के लिए यह अचानक भड़की आग नहीं थी, बल्कि सालों से दबी नाराज़गी का नतीजा थी।
वांगचुक की दूरदर्शिता
2024 में एक पदयात्रा के दौरान सोनम वांगचुक ने कहा था कि लद्दाख के युवा खुद को लगातार अलग-थलग महसूस कर रहे हैं। उन्होंने चेताया था कि अगर सरकार ने उनके मुद्दों—लोकतांत्रिक अधिकारों से लेकर सतत विकास तक—को गंभीरता से नहीं लिया, तो हालात "विस्फोटक" हो सकते हैं। आज की सुर्खियों को देखकर लगता है मानो यह भविष्यवाणी सच हो गई हो।
अब सवाल यह है कि उनकी आवाज़ उस संकट को रोकने की पुकार थी या फिर, जैसा कुछ अधिकारी कह रहे हैं, यह आग भड़काने वाली चिंगारी। सरकार ने वांगचुक पर भड़काऊ भाषणों का आरोप लगाया है और उनकी एनजीओज़ पर एफसीआरए उल्लंघन की जांच शुरू कर दी है। वहीं वांगचुक का कहना है कि उन्हें बलि का बकरा बनाया जा रहा है।
आरोपों से परे
लेकिन इस पूरे संकट को सिर्फ एक व्यक्ति के बयान तक सीमित कर देना हकीकत से आंखें मूँदने जैसा होगा। लद्दाख की सड़कों पर दिख रहा गुस्सा किसी एक भाषण से नहीं आया है। यह सालों से अनसुना किए जाने, अधूरे वादों और टूटते सपनों का परिणाम है। लद्दाख के लोग कोई असंभव मांग नहीं कर रहे—वे बस अपने भविष्य को गढ़ने में साझेदार बनना चाहते हैं।
सरकार के सामने विकल्प साफ है। या तो वह इसे केवल कानून-व्यवस्था की समस्या मानकर सख्ती दिखाए, या फिर वास्तव में उन आवाज़ों को सुने जो पहाड़ों से उठ रही हैं। इतिहास गवाह है कि असंतोष की जड़ों को अनदेखा करना सिर्फ विस्फोट को टालना होता है।
निर्णायक मोड़
आज जब सोनम वांगचुक की चेतावनी फिर से सुर्खियों में है, तो हमें यह कड़वी सच्चाई स्वीकार करनी होगी: इस संकट की आहट पहले से थी। इसके बारे में बोला गया, चेताया गया, यहां तक कि मार्च भी निकाले गए। असली त्रासदी यह है कि इसे रोका जा सकता था।
लद्दाख के लिए अब आगे का रास्ता संवाद, सम्मान और ऐसा विकास होना चाहिए जिसमें स्थानीय लोग भी बराबरी से शामिल हों। अगर ऐसा नहीं हुआ, तो एक शख्स की भविष्यवाणी पूरे क्षेत्र की लंबी हकीकत बन सकती है।
